June 23, 2025

उत्तराखंड ईमानदार IFS अधिकारी डॉ. धनंजय मोहन ने आखिर क्यों लिया वीआरए, आईए जानते हैं इसके पीछे की वजह,,,,,,

उत्तराखंड ईमानदार IFS अधिकारी डॉ. धनंजय मोहन ने आखिर क्यों लिया वीआरए, आईए जानते हैं इसके पीछे की वजह,,,,,,

देहरादून: उत्तराखंड में एक बार फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि ईमानदार अधिकारी अपने पद पर क्यों नहीं टिक पा रहे हैं? वन विभाग के प्रमुख एवं वरिष्ठ भारतीय वन सेवा (IFS) अधिकारी डॉ. धनंजय मोहन ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (VRS) ले ली। एक ऐसा अधिकारी जिसने हमेशा ईमानदारी को अपनी प्राथमिकता में रखा, जिसे उसके सिद्धांतों और स्पष्टवादिता के लिए जाना जाता था आज वही सिस्टम के भीतर घुटन से हार गया।

डॉ. धनंजय मोहन की छवि एक निर्भीक, निडर और निहायत ईमानदार अफसर के तौर पर रही है। उन्होंने हमेशा व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा लिया, गलत का विरोध किया और सत्य के पक्ष में खड़े रहे। लेकिन सिस्टम उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सका—इतना कि रिटायरमेंट में मात्र दो माह शेष होने के बावजूद उनका वीआरएस आवेदन चंद घंटों में ही मंजूर कर लिया गया।

जिन प्रक्रियाओं में सामान्यतः हफ्तों लग जाते हैं, वे महज कुछ घंटों में पूरी हो गईं—वन मंत्री की स्वीकृति, सचिव की सहमति, मुख्य सचिव की मंजूरी और फिर मुख्यमंत्री की स्वीकृति। और यही नहीं, डॉ. मोहन की जगह उनके बाद वरिष्ठतम आईएफएस समीर सिन्हा की तत्काल तैनाती भी कर दी गई। सवाल उठता है—आख़िर इतनी जल्दी क्यों? क्या प्रशासनिक कामकाज ठप पड़ गया था या फिर किसी खास एजेंडे के तहत यह निर्णय लिया गया? एक और बात डॉ धनंजय मोहन ने छुट्टी के लिए भी आवेदन किया था। लेकिन, छुट्टी पर जाने से पहले ही उन्होंने वीआरएस ले लिया। इस दौरान ऐसा क्या हो गया।

डॉ. धनंजय मोहन का मामला कोई अपवाद नहीं है। उत्तराखंड में हाल के वर्षों में कई ईमानदार अधिकारियों को या तो किनारे किया गया या तंग आकर उन्होंने खुद ही पद छोड़ने का निर्णय लिया।

इन घटनाओं की श्रृंखला यही बताती है कि उत्तराखंड में ईमानदारी अब एक अपराध बनती जा रही है, और सिस्टम उन्हीं को निगल रहा है जो उसे सुधारने की कोशिश करते हैं।

डॉ. मोहन ने वीआरएस लेने के बाद एक संक्षिप्त लेकिन मार्मिक प्रतिक्रिया दी। जब एक पत्रकार ने उनसे कारण पूछा, तो वे हंसते हुए बोले—“तुम भी ले लो।”

यह जवाब जितना हल्का-फुल्का दिखता है, उतना ही गहरा व्यंग्य और दर्द इसमें छिपा है। दरअसल, यह उस प्रशासनिक संस्कृति की ओर इशारा है जहां सच्चाई और ईमानदारी अब बोझ बन गई है।

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