अमावस्या पर धर्म कर्म और आस्था, पितृ अमावस्या पर कैसे करें पितरों की पूजा और उनकी श्रद्धापूर्ण विदाई- ABPINDIANEWS SPECIAL
देहरादून: हिंदू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की अमावस्या को पितृ अमावस्या कहा जाता है। इस दिन पितरों की आत्मा की शांति और आशीर्वाद के लिए विशेष पूजा-अर्चना, तर्पण और पिंडदान करने की परंपरा है। धार्मिक मान्यताओं में पितृ अमावस्या का विशेष महत्व है क्योंकि यह दिन पूरे वर्ष में वह अवसर माना जाता है जब पितृ अपने वंशजों के आह्वान पर धरती पर आते हैं और श्रद्धा भाव से किए गए कर्मों से तृप्त होकर आशीर्वाद देते हैं।
इस दिन सुबह स्नान करके घर या आंगन को स्वच्छ किया जाता है और गंगाजल का छिड़काव कर पवित्र वातावरण बनाया जाता है। पितरों के प्रतीक स्वरूप कुशा, तिल और जल का उपयोग कर तर्पण किया जाता है। श्रद्धालु दक्षिण मुख होकर आसन पर बैठते हैं और ‘ॐ पितृदेवभ्यः स्वधा’ मंत्र का उच्चारण करते हुए जल, तिल, अक्षत और पुष्प अर्पित करते हैं। इसके साथ ही पिंडदान की विधि भी की जाती है जिसमें पकाए हुए चावल, जौ और तिल का विशेष महत्व है। कर्म करने के बाद इन सभी सामानों को किसी सुपात्र को दान करें।
याद रखने योग्य बात यह है कि दान करने वाले व्यक्ति के आचरण एवं स्वभाव को ध्यान मे रखे- क्योंकि सुपात्र को किया गया दान ही सफल एवं फलदाई माना जाता है।
श्रद्धालु इस अवसर पर पितरों की प्रिय वस्तुएं जैसे खीर, पूड़ी और मौसमी फल का भोग लगाते हैं। संध्या समय दीपक प्रज्वलित कर पितरों की विदाई की जाती है और उनसे परिवार की समृद्धि, स्वास्थ्य एवं शांति का आशीर्वाद मांगा जाता है। परंपरा के अनुसार जरूरतमंदों, ब्राह्मणों और गौशालाओं में भोजन और दान देना भी पितृ अमावस्या के कर्मकांड का अभिन्न हिस्सा है।
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार पितृ अमावस्या पर किए गए श्राद्ध और तर्पण से पितृ दोष का निवारण होता है। साथ ही परिवार के जीवन से बाधाएं दूर होती हैं और घर-परिवार में सुख, शांति और समृद्धि बनी रहती है। यही कारण है कि अमावस्या का यह दिन हमारे लिए न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि पारिवारिक परंपराओं और पितरों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का भी अवसर है- गौरव चक्रपाणी
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